अध्याय १२
Chapter 12
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
भावार्थ : परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥
Those who worship the indescribable,all-pervading,inconceivable,immutable,constant,eternal,impersonal absolute devoid of perceptible form and attributes;completely controlling all the senses with spiritual intelligence equally disposed to everything and dedicated to the welfare of all living entities;they certainly achieve me.
निर्गुण उपासना
निर्गुण उपासना में चिंतन का कोई आधार न रहने से इन्द्रियों का सम्यक संयम हुए बिना(आसक्ति रहने पर) विषयों में मन जा सकता है और विषयों का चिंतन होने से पतन (उपासना अपूर्ण)होने की संभावना रहती है । अतः निर्गुनोपासक के लिये सभी इन्द्रियों को विषयों से हटाते हुए सम्यक प्रकार से पूर्णतः वश में करना आवश्यक है । इन्द्रियों को केवल बाहर से ही वश में नहीं करना है,प्रत्युत विषयों के प्रति साधक के अंतःकरण में भी राग नहीं रहना चाहिए क्यूंकि जब तक विषयों में राग है, तब तक ब्रह्म की प्राप्ति कठिन है । इन्द्रियों के विषयों से तात्पर्य है पांच ज्ञानेन्द्रियों के पांच विषय हैं —
ज्ञानेन्द्रियां विषय
आंख रूप
जीभ रस
नाक गन्ध
त्वचा स्पर्श
कान शब्द
(आँख,जीभ,नाक,त्वचा,कान) को अपने विषयों(रूप,रस,गंध,स्पर्श,शब्द ) के प्रति संयम रखना सगुण उपासना और निर्गुण उपासना दोनों में महत्त्वपूर्ण है ।
इन श्लोकों में भगवान् ने निर्गुण ब्रह्म के आठ विशेषण बताये हैं-
अचिन्त्य(मन, बुद्धि से परे),
सब जगह परिपूर्ण
अनिर्देश्य (जो भाषा,वाणी से नहीं बतलाया जा सकता)
कूटस्थ(सभी समय सभी देश,काल,वस्तु,व्यक्ति में परमात्मतत्त्व निर्विकार और निर्लिप्त रहता है)
अचल (आने जाने की क्रिया से सर्वथा रहित)
ध्रुव (जो नित्य विद्यमान है )
अक्षर (जिसका कभी क्षरण अथार्त विनाश नहीं होता)
अव्यक्त(जो व्यक्त न हो अथार्त मन-बुद्धि-इन्द्रियों का विषय न हो)
इन विशेषणों का लक्ष्य रखकर जो उपासना की जाती है,वह निर्गुण ब्रह्म की ही उपासना है और इसके परिणाम में प्राप्ति भी निर्गुण ब्रह्म की ही होती है ।
परमात्मा को तत्त्व से समझाने के लिए दो प्रकार के विशेषण दी जाते हैं - निषेधात्मक और विध्यात्मक ।
परमात्मा के अक्षर,अनिर्देश्य,अव्यक्त,अचिन्त्य,अचल,अव्यय,असीम,अपार,अविनाशी आदि विशेषण निषेधात्मक हैं और सर्वयापी,कूटस्थ,ध्रुव,सत,चित,आनन्द आदि विशेषण विध्यात्मक हैं ।
परमात्मा के निषेधात्मक विशेषणों का तात्पर्य प्रकृति से परमात्मा की असंगता बताना है और विध्यात्मक विशेषणों का तात्पर्य परमात्मा की स्वतंत्र सत्ता बताना है ।
परमात्मतत्त्व सांसारिक प्रवृत्ति और निर्वृत्ति- दोनों से परे सहज निवृत्त और दोनों को सामानरूप से प्रकाशित करने वाला है ।
साधक अपनी बुद्धि से परमात्मा को देखने की चेष्टा करता है,जबकि सिद्ध महापुरुषों की बुद्धि में परमात्मा स्वाभाविक रूप से इतनी घनता से परिपूर्ण हैं की उनके लिए परमात्मा के सिवाय और कुछ है ही नहीं। इसलिये उनकी बुद्धि का विषय परमात्मा नहीं हैं , प्रत्युत उनकी बुद्धि ही परमात्मा से परिपूर्ण है । भगवान कहते हैं की ऐसे साधकों को जो निर्गुण ब्रह्म प्राप्त होता है वह मैं ही हूँ। तात्पर्य है की तत्वतः सगुण और निर्गुण एक ही तत्त्व है अथार्त सब कुछ तत्वतः परमात्मा ही है ।
Attributeless Worship
For devotees who worship the attributeless God, having no base for thought,without controlling the senses,can think of the objects of the senses and thus can perish.For such devotees it is necessary to control,not only the senses fully but also the mind,because so long as, there is attachment of the mind with the objects of senses, the Absolute(Brahma), can not be gained.
here God is denoted by eight adjectives as follows
Acintyam (Indescribable) - who is beyond the reach of senses and mind.God can be known one by the self.
Sarvatragam (All pervading)- all pervading and limitless.
Anirdesyam(Inconceivable) - which can not be defined through language or speech.
Kutastham(Immutable) - who while pervading all space,time,things and individuals,remains unvitiated and uncontaminated.
Acalam(Constant) - Totally immovable and free from change.
Dhruvam(Eternal) - Certain and eternal.
Aksaram(Impersonal) - Truth,Consciousness and Bliss,solidified and is never destroyed.
Avyaktam(Incomprehensible)- to the mind and senses.
In order to explain the existence of God,two kinds of adjectives - in the negative and in the positive,have been given.The negative adjectives,imperishable,indefinable,unmanifest,unthinkable,immovable,unlimited,show that God is different from prakrati(nature) while the posivite adjectives,such as omnipresent,uniform,eternal,and nouns - truth,consciousness and bliss,show the Lord's independent existence.Innate,Inactive,Absolute,beyond the states of activity and non-activity is the illuminator, of activity and non activity.The different adjectives have been used so that the intellect may have a conception about Him, and so it may reflect upon, that Absolute.
A striver tries to behold God everywhere, while for God-realised souls, there is nothing but,God.They are even minded,because they behold only God,everywhere.The intellect of the God-realized soul is naturally influenced by the Absolute.The Lord declares that those who worship attributeless God also attain him.It means, that God with attributes, and God,Who is attributeless,are one and the same.
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥
भावार्थ :जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। ॥6॥ हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ॥7॥
Those who surrendering all activities unto Me, being attached to Me meditating on Me
with exclusive worship by the science of uniting the individual consciousness with the Ultimate consciousness in devotion;O Arjuna,of these persons whose minds are absorbed in thoughts of Me,I become deliverer without delay from the ocean of death in the material existence.
सगुण उपासना
सगुण उपासना में ध्यान का विषय सगुण भगवान् होने से इन्द्रियां भगवान् में लग सकती हैं क्यूंकि भगवान् के सगुण स्वरुप में इन्द्रियों को अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं अतः इन्द्रिय संयम की आवशयकता रहते हुए भी इसकी इतनी अधिक आवशयकता नहीं रहती । `सगुण उपासना में उपास्यतत्व के सगुण साकार होने के कारन साधक के मन,इन्द्रियों के लिये भगवान् के स्वरुप,नाम.लीला कथा आदि का आधार होता है । सांसारिक आसक्ति ही साधन में क्लेश देती है परन्तु सगुणोपासक इसको दूर करने के लिये भगवान् के ही आश्रित रहता है ।वह अपने में भगवान् का ही बल मानता है । इस साधन में विवेक और वैराग्य की उतनी आवशयकता नहीं जितनी प्रेम और विश्वास की।यहाँ साधक अपने सभी कर्म भगवान को अर्पित कर देता है । सगुणोपासक भगवान् का ही लक्ष्य,ध्येय रखकर उपासना अथार्त जप तप ध्यान कीर्तन आदि करते हैं । ये अपनी अनुकूल और प्रतिकूल दोनों वृत्तियाँ जिनसे राग द्वेष उत्पन्न होता है भगवान् में लगा देते हैं और भगवान् को प्राप्त करते हैं ।
Attribute Worship
Such devotees can easily concentrate their senses and mind, on God,because He is with form and attribute.It is attachment of world which causes difficulty in the spiritual path.Such devotees depends totally on God to get rid of worldly attachments.They surrender their all actions to God.In a daily life man,is bound to face both desirable and undesirable circumstances.Feelings of agreeableness and disagreeableness towards him are inherent in a man.Through such feelings a man develops for attachment and aversion.Such devotees surrender their feelings of agreeableness and disagreeableness to the God.
From- Sadhak Sanjivani ( Gitapress)