Wednesday, 21 December 2011

कविता


कविता ख़ुशी से सराबोर तो कभी दर्द की डोर
कविता ज़िन्दगी से रूबरू तो कभी ज़िन्दगी की ओर


कविता जब भी लिखे जब भी पढ़े अहमियत है उसकी 
कविता ख़ामोशी की बात कभी ख़ामोशी का शोर 


कविता दोस्त है कविता दोस्ती से बढ़कर एक रिश्ता 
कविता जो भावनाओं को जीती है निभाने की तौर 


कविता जो काग़ज़ पर कभी कभी ज़हन पर उतरती 
कलम जिसे लिखती रहती नहीं करती सियाही पर गौर 


कविता जो मायने अपने खुद ही होती है हमेशा 
कलम उन्मुक्त रहे बंधन के नहीं इसमें दौर 


Monday, 21 November 2011

निर्गुण उपासना और सगुण उपासना (Attributeless worship and Attribute worship)

अध्याय १२ 

Chapter 12


ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌ ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ 

भावार्थ :  परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥


Those who worship the indescribable,all-pervading,inconceivable,immutable,constant,eternal,impersonal absolute devoid of perceptible form and attributes;completely controlling all the senses with spiritual intelligence equally disposed to everything and dedicated to the welfare of all living entities;they certainly achieve me.



निर्गुण उपासना
निर्गुण उपासना में चिंतन का कोई आधार न रहने से इन्द्रियों का सम्यक संयम हुए बिना(आसक्ति रहने पर) विषयों में मन जा सकता है और विषयों का चिंतन होने से पतन (उपासना अपूर्ण)होने की संभावना रहती है । अतः निर्गुनोपासक के लिये सभी इन्द्रियों को विषयों से हटाते हुए सम्यक प्रकार से पूर्णतः वश में करना आवश्यक है । इन्द्रियों को केवल बाहर से ही वश में नहीं करना है,प्रत्युत विषयों के प्रति साधक के अंतःकरण में भी राग नहीं रहना चाहिए क्यूंकि जब तक विषयों में राग है, तब तक ब्रह्म की प्राप्ति कठिन है । इन्द्रियों के विषयों से तात्पर्य है
पांच ज्ञानेन्‍द्रि‍यों के पांच वि‍षय हैं —
ज्ञानेन्‍द्रि‍यां वि‍षय
आंख   रूप
जीभ   रस
नाक   गन्‍ध
त्‍वचा  स्‍पर्श
कान  शब्‍द
(आँख,जीभ,नाक,त्वचा,कान) को अपने विषयों(रूप,रस,गंध,स्पर्श,शब्द ) के प्रति संयम रखना सगुण उपासना और निर्गुण उपासना दोनों में महत्त्वपूर्ण है ।

इन श्लोकों में भगवान् ने निर्गुण ब्रह्म के आठ विशेषण बताये हैं-
अचिन्त्य(मन, बुद्धि से परे),
सब जगह परिपूर्ण
अनिर्देश्य (जो भाषा,वाणी से नहीं बतलाया जा सकता)
कूटस्थ(सभी समय सभी देश,काल,वस्तु,व्यक्ति में परमात्मतत्त्व निर्विकार और निर्लिप्त रहता है)
अचल (आने जाने की क्रिया से सर्वथा रहित)
ध्रुव (जो नित्य विद्यमान है )
अक्षर (जिसका कभी क्षरण अथार्त विनाश नहीं होता)
अव्यक्त(जो व्यक्त न हो अथार्त मन-बुद्धि-इन्द्रियों का विषय न हो)
इन विशेषणों का लक्ष्य रखकर जो उपासना की जाती है,वह निर्गुण ब्रह्म की ही उपासना है और इसके परिणाम में प्राप्ति भी निर्गुण ब्रह्म की ही होती है ।

परमात्मा को तत्त्व से समझाने के लिए दो प्रकार के विशेषण दी जाते हैं - निषेधात्मक और विध्यात्मक ।

परमात्मा के अक्षर,अनिर्देश्य,अव्यक्त,अचिन्त्य,अचल,अव्यय,असीम,अपार,अविनाशी आदि विशेषण निषेधात्मक हैं और सर्वयापी,कूटस्थ,ध्रुव,सत,चित,आनन्द आदि विशेषण
विध्यात्मक हैं ।
परमात्मा के निषेधात्मक विशेषणों का तात्पर्य प्रकृति से परमात्मा की असंगता बताना है और विध्यात्मक विशेषणों का तात्पर्य परमात्मा की स्वतंत्र सत्ता बताना है ।
परमात्मतत्त्व सांसारिक प्रवृत्ति और निर्वृत्ति- दोनों से परे सहज निवृत्त और दोनों को सामानरूप से प्रकाशित करने वाला है ।
साधक अपनी बुद्धि से परमात्मा को देखने की चेष्टा करता है,जबकि सिद्ध महापुरुषों की बुद्धि में परमात्मा स्वाभाविक रूप से इतनी घनता से परिपूर्ण हैं की उनके लिए परमात्मा के सिवाय और कुछ है ही नहीं। इसलिये उनकी बुद्धि का विषय परमात्मा नहीं हैं , प्रत्युत उनकी बुद्धि ही परमात्मा से परिपूर्ण है । भगवान कहते हैं की ऐसे साधकों को जो निर्गुण ब्रह्म प्राप्त होता है वह मैं ही हूँ। तात्पर्य है की तत्वतः सगुण और निर्गुण एक ही तत्त्व है अथार्त सब कुछ तत्वतः परमात्मा ही है ।




Attributeless Worship


For devotees who worship the attributeless God, having no base for thought,without controlling the senses,can think of the objects of the senses and thus can perish.For such devotees it is necessary to control,not only the senses fully but also the mind,because so long as, there is attachment of the mind with the objects of senses, the Absolute(Brahma), can not be gained.
here God is denoted by eight adjectives as follows

Acintyam (Indescribable) - who is beyond the reach of senses and mind.God can be known one by the self.
Sarvatragam (All pervading)- all pervading and limitless.
Anirdesyam(Inconceivable) - which can not be defined through language or speech.
Kutastham(Immutable) - who while pervading all space,time,things and individuals,remains unvitiated and uncontaminated.
Acalam(Constant) - Totally immovable and free from change.
Dhruvam(Eternal) - Certain and eternal.
Aksaram(Impersonal) - Truth,Consciousness and Bliss,solidified and is never destroyed.
Avyaktam(Incomprehensible)-  to the mind and senses.

In order to explain the existence of God,two kinds of adjectives - in the negative and in the positive,have been given.The negative adjectives,imperishable,indefinable,unmanifest,unthinkable,immovable,unlimited,show that God is different from prakrati(nature) while the posivite adjectives,such as omnipresent,uniform,eternal,and nouns - truth,consciousness and bliss,show the Lord's independent existence.Innate,Inactive,Absolute,beyond the states of activity and non-activity is the illuminator, of activity and non activity.The different adjectives have been used so that the intellect may have a conception about Him, and so it may reflect upon, that Absolute.
A striver tries to behold God everywhere, while for God-realised souls, there is nothing but,God.They are even minded,because they behold only God,everywhere.The intellect of the God-realized soul is naturally influenced by the Absolute.The Lord declares that those who worship attributeless God also attain him.It means, that God with attributes, and God,Who is attributeless,are one and the same.





ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ 
 तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌ ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌ ॥


भावार्थ :जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। ॥6॥ हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ॥7॥
 
Those who surrendering all activities unto Me, being  attached to Me meditating on Me
 with exclusive worship by the science of uniting the individual consciousness with the Ultimate consciousness in devotion;O Arjuna,of these persons whose minds are absorbed in thoughts of Me,I become deliverer without delay from the ocean of death in the material existence.








 सगुण उपासना 



सगुण उपासना में ध्यान का विषय सगुण भगवान् होने से इन्द्रियां भगवान् में लग सकती हैं क्यूंकि भगवान् के सगुण स्वरुप में इन्द्रियों को अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं अतः इन्द्रिय संयम की आवशयकता रहते हुए भी इसकी इतनी अधिक आवशयकता नहीं रहती । `सगुण उपासना में उपास्यतत्व के सगुण साकार होने के कारन साधक के मन,इन्द्रियों के लिये भगवान् के स्वरुप,नाम.लीला कथा आदि का आधार होता है । सांसारिक आसक्ति ही साधन में क्लेश देती है परन्तु सगुणोपासक इसको दूर करने के लिये भगवान् के ही आश्रित रहता है ।वह अपने में भगवान् का ही बल मानता है । इस साधन में विवेक और वैराग्य की उतनी आवशयकता नहीं जितनी प्रेम और विश्वास की।यहाँ साधक अपने सभी कर्म भगवान को अर्पित कर देता है । सगुणोपासक भगवान् का ही लक्ष्य,ध्येय रखकर उपासना अथार्त जप तप ध्यान कीर्तन आदि करते हैं । ये अपनी अनुकूल और प्रतिकूल दोनों वृत्तियाँ जिनसे राग द्वेष उत्पन्न होता है भगवान् में लगा देते हैं और भगवान् को प्राप्त करते हैं ।



Attribute Worship



Such devotees can easily concentrate their senses and mind, on God,because He is with form and attribute.It is attachment of world which causes difficulty in the spiritual path.Such devotees depends totally on God to get rid of worldly attachments.They surrender their all actions to God.In a daily life man,is bound to face both desirable and undesirable circumstances.Feelings of agreeableness and disagreeableness towards him are inherent in a man.Through such feelings a man develops for attachment and aversion.Such devotees surrender their feelings of agreeableness and disagreeableness to the God.






 From- Sadhak Sanjivani ( Gitapress)




Saturday, 12 November 2011

Parmaatma (ईश्वर)

अध्याय १३ 

Chapter 13


सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्‌ ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥


वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। (आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण रूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारण रूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है) ॥13॥


With hands and feet everywhere,with eyes,heads and faces everywhere,hearing all; that 
really exists pervading everything in this world.




सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्‌ ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥


वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है॥14॥



That Ultimate truth is cognizant of  all the senses of the material nature; yet it is devoid of all material senses, completely unattached yet the sustainer of everything transcendental to material nature, yet the maintainer of material nature.




बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्‌ ॥



वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय (जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है) है तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है) और दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है॥15॥


With in and without all living entities,that Ultimate truth is stationary as well as mobile; on account of its being subatomic, that Ultimate truth is incomprehensible and is far away yet also very near.




अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्‌ ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥


 वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है (जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है॥16॥



Without division that Ultimate truth appears to be divided among all the various living entities and is to be known as the preserver of all living entities and the destroyer as well as the creator.



ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्‌ ॥
भावार्थ :  वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है॥17॥ 


That Ultimate Truth is declared as the illuminator of all that illuminates, beyond the darkness of ignorance; residing with in the heart of everyone it is comprehensible by the wisdom gained from realization by the knowledge of direct experience.

Sunday, 6 November 2011

सांख्ययोग

सांख्ययोग 
अध्याय २ 


Chapter 2 

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥


Just as in the physical body of the embodied being is the process of childhood,youth and old age;
similarly by the transmigration from one body to another the wise are never deluded.




अर्थ: जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।13॥ 





भावार्थ : यहाँ भगवान् कह रहे हैं की आत्मा हमारा स्वरुप है। शरीर नहीं शरीर के साथ सम्बन्ध मानने से ही हममें मोह और अज्ञान आता है और हम अज्ञानवश दुखी होते हैं। परन्तु जब हम अपने स्वरुप में विद्यमान रहते हैं तब शरीर के प्रति मोह नहीं रहता और आत्मा की शाश्वतता को अनुभव करते हुए हम कर्म करते हैं,निर्लिप्त रहते हैं।






मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥






 O Arjuna, only the interaction of the senses and sense objects give cold,heat,pleasure and pain.These things are temporary,appearing and disappearing; therefore try to tolerate them.



अर्थ: हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥14॥






भावार्थ  : यहाँ परमेश्वर कह रहे हैं इन्द्रिय व इनके विषय तथा मन बुध्ही सब ही अनित्य हैं, विनाशशील हैं चूँकि ये आरम्भ होते हैं अतः इनका अंत भी होना होता है और होता है। आत्मा इस शरीर में रहते हुए अपने प्रारब्ध को भोगती है इसलिए स्वाभाविक है की सुख दुःख मिलेंगे ही इसलिए व्यक्ति को उन्हें सहना चाहिए अथार्त उनके प्रति उदासीन रहना चाहिए क्यूंकि अनित्य की सत्ता हो ही नहीं सकती । 






यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥

 O noblest of men,that person of wise judgement equipoised in hapiness and distress,whom can not be disturbed by these is certainly eligible for liberation.






अर्थ : क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥15॥ 
 भावार्थ :  यहाँ परमात्मा व्यक्तियों पर अति विशेष कृपा करते हुए अति गूढ़ रहस्य भी उजागर कर देते हैं। जीवन का सारगर्भित तत्त्व बताते हुए वो इस्पष्ट कर देते हैं की इन्द्रियां और उनके विषय ही व्यक्ति को मोक्ष अथार्त परम शांति व परमपद से दूर रखते हैं क्यूंकि ये व्यक्ति को मोहित रखते हैं और सदा ही पतन की तरफ ले जाते हैं।  पतन की तरफ ले जाने का तात्पर्य यही है की वो व्यक्ति को उसके स्वरुप का भान नहीं होने देते हैं और व्यक्ति उन्हें ही सबकुछ समझकर स्वयं को शरीर मान कर अपने अविनाशी स्वरुप को भुला बैठता है और इस तरह से जो की उसका उद्देश्य था परमात्मा उसे भुला कर अपने ही अधीन रहने वाले और कई समय से मूर्ख बनाने वाले मन बुध्ही से प्रेरित इन्द्रियों के विषयों से व्याकुल होकर इनमे सुख है ऐसा मान निरंतर अधोगति को प्राप्त होता है । परन्तु जब वो अपने स्वरुप को जा जाता है परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है और तब वो सुख दुःख को समान समझता है और उनसे विचलित या व्याकुल नहीं होता ।

Saturday, 29 October 2011

ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय

अध्याय १३ 
 
 
 
 
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्‌यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्‌ ॥ 
 
 
भावार्थ :  प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान॥19॥ 
 
 
 
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ 
 
 
 
भावार्थ :  कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध -इनका नाम 'कार्य' है) और करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्‌, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम 'करण' है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तपन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है॥20॥ 
 
 
 
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते प्रकृतिजान्गुणान्‌ ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
 
 
 
भावार्थ :  प्रकृति में (प्रकृति शब्द का अर्थ गीता अध्याय 7 श्लोक 14 में कही हुई भगवान की त्रिगुणमयी माया समझना चाहिए) स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। (सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और तमो गुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।)॥21॥
 
 
 
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥
 
 
 
भावार्थ :  इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है॥22॥
 
 
 
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥
 
 
 
भावार्थ :  इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है (दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान, जड़ और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध, बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों के संग का सर्वथा त्याग करके परम पुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको 'तत्व से जानना' है) वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता॥23॥
 
 
 
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्‍ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥
 
 
 
भावार्थ :  उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान द्वारा हृदय में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोग द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग  द्वारा देखते हैं अर्थात प्राप्त करते हैं॥24॥

Monday, 28 February 2011

कविता

काव्य  एक  अनुभूति  है, कविता  एक   यात्रा  है
ऊंचे  हिमशिखरों  से  जैसे  कोई  नदी  अपनी  धरा  लिए  चलती
कहीं  ठिठक  कर  कहीं  मनमाने  ढंग  से  बात  अपनी  कहती
कविता  भी  कलम  के  माध्यम  से  पंक्तियों  में बढ़ कोई  सरिता सी  है
जो  अविरल  रूप  से  अपने  गंतव्य  को  प्रति  पल  अपने  साथ  लिए  रहती  है
कवि  के  लिए  उसकी  कविता  एक  गंगाजल  है  और  उसका  उदगम  एक  पवित्र  स्थल है