Thursday 9 February 2012

इंसानियत के मिटने पर कहीं न इंसान खो जाए

इंसानियत के मिटने पर कहीं न इंसान खो जाए 
शहरे-ए-इंसानियत में न इंसान का मकान खो जाए 

आदमी की उम्र है तो फ़क़त फ़क़त सी मगर 
अमर हो जाए तो यकीनन भगवान् खो जाए 

उठा के बड़ी हसरत से कीचड़ उछाले जो 
दुआ देना कहीं ये भी न एहसान खो जाए 

मंदिर-ओ-मस्जिद तक में ही रखोगे उसे तो 
वाजिब है खुद में ढूँढने पर भगवान् खो जाए 


औरो की हंसी से खिले वो ही मुस्कराहट 
ऐसी ख़ुशी पर ही तो मुस्कान खो जाए 


3 comments:

  1. बहुत सुन्दर सृजन,बधाई.

    कृपया मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" की नवीनतम पोस्ट पर पधारकर अपना स्नेह प्रदान करें.

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  2. मंदिर-ओ-मस्जिद तक में ही रखोगे उसे तो
    वाजिब है खुद में ढूँढने पर भगवान् खो जाए waah

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  3. वाह..........

    बहुत सुन्दर गज़ल....

    अनु

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