Friday, 31 August 2012

ज़िन्दगी मुहब्बत के लिए कम है लोग नफरत में बिता देते हैं


ज़िन्दगी मुहब्बत के लिए कम है लोग नफरत में बिता देते हैं
शय ए दोस्ती को आखिर कैसे यूँ आसानी से भुला देते हैं


बहुत मुश्किल से बनती है रिश्तों में बेबाकियाँ यारों
दोस्ती को भी आजकल कितनी बेबाकी से
सज़ा देते हैं

मत समझो टूट कर कतरा वो आखों से कहीं खो गया
हवाओं के आँचल में उसका शोर थमा देते हैं

आंधियां न तकलीफ दो खुद को तुफानो को बुलाकर
हम तो खुद भी चरागों को जलाकर बुझा देते हैं

आसमान तेरे दामन में ये सितारे जो चमकते रहते
सुबह होते ही पैगाम अपना ओस को बना देते हैं

Tuesday, 28 August 2012

जीवन पथ पर सभी साथी बिछड़ जाने हैं


जीवन पथ पर सभी साथी बिछड़ जाने हैं
जो आज साथ हँसते हैं कल मरघट तक भी नहीं जाने हैं

 जीवन पथ पर सभी साथी बिछड़ जाने हैं

वक़्त के साए ख़ुशी में थे वक़्त के साए ग़म में भी
करता स्वयं को मान बैठता है मगर आदमी ही

रात के अँधेरे ही सुबह के तराने बन जाने हैं

जीवन पथ पर सभी साथी बिछड़ जाने हैं

मंजिलों और रास्तों की उलझन में खोता है आदमी
रास्तों पर चलके ही मंजिल को मंजिल समझता है आदमी

हासिल किये जो मुकाम रास्तों की गर्द बन जाने हैं

जीवन पथ पर सभी साथी बिछड़ जाने हैं


जीवन जो जिया जाता है जीवन वो न जिया जाता है
जीवन जो बह लेता है जीवन वो जीवन होता है

जीवन में चिंताओं के भार नहीं उठाने होते हैं

जीवन पथ पर सभी साथी बिछड़ जाने हैं

जीवन वो ही जीवन नहीं जो जीवन के साथ है
जीवन वो भी जीवन है जो मृत्यु के बाद है

जीवन पथ ऐसा सागर जिसमे नहीं किनारे हैं

जीवन पथ पर सभी साथी बिछड़ जाने हैं

Monday, 20 August 2012

एक आम नागरिक की सोच

हालात देश के ऐसे हैं
जानते हो
कल पूछा मुझसे किसी ने
मैंने उचक के बेतुकी निगाहों से देखा
एक हलकी सी हामी भरी और चल पड़ा
अरे मुझे इस सबसे क्या लेना देना
ज़िन्दगी में मुकाम इसलिए तो नहीं बनाया
ऐसी बातों में सर खपाता फिरूं
सर में दर्द हो गया
जाने ऐसे कौन से कर्म किए की सुबह सुबह ये मिल गए
खुद तो बेकार हैं मेरा दिन भी खराब कर गए
बड़ी मुश्किल से ज़िन्दगी में खुशियाँ आयीं हैं 
कहीं खुशियों में खलल न पड़ जाए
देश के हालात पहले कौन से अच्छे थे
एक मैं ही तो बोलने को हूँ नहीं 
और एक मेरे बोलने से आखिर क्या होगा
बस जो समय मस्ती में कट सकता था वो निकल जाएगा
जिन पलों में दोस्तों संग ठहाके लगाता
थोडा इधर उधर की बतियाता
कितना आनंद मिलता है इन सब में
जीवन में इससे बढ़के भी और कुछ है क्या
ज़रूर वो मेरा वोट अपनी पार्टी के लिए चाहता होगा
या बम धमाकों में इसका भी कोई मारा गया होगा
इसमें मैं क्या कर सकता हूँ
मेरे पीछे क्यूँ पड़ा ?

घोटाले मैंने तो नहीं किये
बस छूट गयी मेरी सो अलग
कल से और जल्दी निकला करूँगा 
कुछ समय ऐसे लोग भी ले सकते हैं

Sunday, 19 August 2012

पन्ने तक समुन्दर के पानी सा हो गए हैं

 जब भी बैठता हूँ लिखने कुछ
हाँ अक्सर ही मन करता है
लिखूं कुछ
लिखने का शौक भी है
संतुष्टि भी मिलती है
लेकिन कलम को पकड़ के 
जैसे ही भावों के हौसले बढाता हूँ
खुद की पुकार औरों के दर्द के आगे बौनी हो जाती है
वो कलम जो सहारा थी शब्दों का,विचारों का
बैसाखी सी बन जाती है
सहारा देना चाहती है
आवाज़ बनना चाहती है दूसरों की
फिर अनुभूतियों और अनुभवों का दौर शुरू होता है
फिर जो लिखता हूँ वहां पढना पढ़ाना फ़िज़ूल सा लगता है
वो शख्स जिसने किसी मजदूर की दुखदर्द भरी दास्ताँ सुनी
जिसने किसी बलात्कार की पीढ़ा में खुद को धकेला
जिसने किसी जवान विधवा के माथे को आँख बंद कर देखा
अचानक बोल उठता है 
इतना ठीक है तुमने महसूस किया
अब इस पर किसी को हंसने का मौका तो न दो
जानते हो आजकल पन्ने तक समुन्दर के पानी सा हो गए हैं
कुछ सोच में पढ़ जाता हूँ
फिर आखों से कहता हूँ
बह लेने दे इन्हें कागज़ पर भी
कलम की राहत की भी सोच
और मैं
मैं तो एक दरिया की तलाश में था
समुन्दर पा गया