Sunday, 19 August 2012

पन्ने तक समुन्दर के पानी सा हो गए हैं

 जब भी बैठता हूँ लिखने कुछ
हाँ अक्सर ही मन करता है
लिखूं कुछ
लिखने का शौक भी है
संतुष्टि भी मिलती है
लेकिन कलम को पकड़ के 
जैसे ही भावों के हौसले बढाता हूँ
खुद की पुकार औरों के दर्द के आगे बौनी हो जाती है
वो कलम जो सहारा थी शब्दों का,विचारों का
बैसाखी सी बन जाती है
सहारा देना चाहती है
आवाज़ बनना चाहती है दूसरों की
फिर अनुभूतियों और अनुभवों का दौर शुरू होता है
फिर जो लिखता हूँ वहां पढना पढ़ाना फ़िज़ूल सा लगता है
वो शख्स जिसने किसी मजदूर की दुखदर्द भरी दास्ताँ सुनी
जिसने किसी बलात्कार की पीढ़ा में खुद को धकेला
जिसने किसी जवान विधवा के माथे को आँख बंद कर देखा
अचानक बोल उठता है 
इतना ठीक है तुमने महसूस किया
अब इस पर किसी को हंसने का मौका तो न दो
जानते हो आजकल पन्ने तक समुन्दर के पानी सा हो गए हैं
कुछ सोच में पढ़ जाता हूँ
फिर आखों से कहता हूँ
बह लेने दे इन्हें कागज़ पर भी
कलम की राहत की भी सोच
और मैं
मैं तो एक दरिया की तलाश में था
समुन्दर पा गया

1 comment:

  1. जानते हो आजकल पन्ने तक समुन्दर के पानी सा हो गए हैं
    कुछ सोच में पढ़ जाता हूँ
    फिर आखों से कहता हूँ
    बह लेने दे इन्हें कागज़ पर भी
    कलम की राहत की भी सोच
    और मैं
    मैं तो एक दरिया की तलाश में था
    समुन्दर पा गया.... लहरों की आवाज़ सुनाई देने लगी है

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